4 जुल॰ 2023

Geeta ka sar || गीता का सार गीता को समझना हुआ आसान

Geeta ka sar || गीता का सार गीता को समझना हुआ आसान



Geeta ka sar || गीता का सार गीता को समझना हुवा आसान

गीता का नियमित पाठ करने से होते है इतने सारे लाभ

मन को शांति मिलती है जो व्यक्ति नियमित गीता पढता है उसका मन शांत बना रहता है।

काम क्रोध लोभ मोह दूर होता है गीता का अध्ययन कने वाला व्यक्ति धीरे धीरे कामवासना,क्रोध,लालच और मोह माया के बंधनों से मुक्त हो जाता है।

मन नियंत्रण में रहता है सच और झूठ का ज्ञान होता है आत्मबल बढ़ता है सकारात्मक ऊर्जा का विकास होता है ।जीवन के प्रति समझ और सूझबूझ उत्पन्न होती है


क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्वय्युपपद्यते । क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ।। 1 ।। 

हे अर्जुन! नपुंसकताको मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती । हे परंतप ! हृदयकी तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा ॥ 1 ॥


देहिनोऽस्मिन् यथा देहे कौमारं यौवनं जरा। तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥ 2 ॥


जैसे जीवात्माकी इस देहमें बालकपन, जवानी और वृद्धावस्थाहोती है, वैसे ही अन्य शरीरकी प्राप्ति भी होती है; उस विषयमें धीर पुरुष मोहित नहीं होता 


न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः । अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥


यह आत्मा किसी कालमें भी न तो जन्मता है और न ही मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला ही है; क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है; शरीरके मारे जानेपर भी यह नहीं मारा जाता ॥3॥



वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥ 4॥


जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रोंको ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरोंको त्यागकर दूसरे शरीरोंको प्राप्त होता है ॥ 4॥


नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।। 5 ।।


इस आत्माको शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता ॥5॥


सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ । ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ।। 6 ।।


जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान समझकर,


उसके बाद युद्धके लिये तैयार हो जा; इस प्रकार युद्ध करनेसे तू पापको नहीं प्राप्त होगा ॥ 6॥


कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ।। 7 ।।


तेरा कर्म करनेमें ही अधिकार है, उसके फलोंमें कभी नहीं। इसलिए तू कर्मोके फलका हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करनेमें भी आसक्ति न हो ॥ 7 ॥


यद्यदाचरति श्रेष्ठः तत्तदेवेतरो जनः । स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥ 8॥


श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्यसमुदाय उसीके अनुसार बरतने लग जाता है ॥ 8 ॥


श्रेयानुस्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ।। 9 ।।


अच्छी प्रकार आचरणमें लाये हुए दूसरेके धर्मसे गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्ममें तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरेका धर्म भयको देनेवाला है ॥ 9 ॥


यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ 10 ॥ 


हे भारत! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रुपको रचता हूँ अर्थात् साकाररूपसे लोगोंके सम्मुख प्रकट होता हूँ ॥10॥


परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ 11 ॥


साधु पुरुषोंका उद्धार करनेके लिये, पापकर्म करनेवालोंका विनाश करनेके लिये और धर्मकी अच्छी तरहसे स्थापना करनेके लिये मैं युग-युगमें प्रकट हुआ करता हूँ ।। 11 ।।


श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः । ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ।। 12 ।।


जितेन्द्रिय, साधनपरायण और श्रद्धावान् मनुष्य ज्ञानको प्राप्त होता है तथा ज्ञानको प्राप्त होकर वह बिना विलम्बके तत्काल ही भगवत्प्राप्तिरूप परम शान्तिको प्राप्त हो जाता है ॥ 12 ॥


विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥ 13 ॥


वे ज्ञानीजन विद्या और विनययुक्त ब्राह्मणमें तथा गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डालमें भी समदर्शी ही होते हैं ॥ 13 ॥


उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥ 14॥ 



अपने द्वारा अपना संसार-समुद्रसे उद्धार करे और अपनेको अधोगतिमें न डाले; क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है ॥ 14॥


बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः । अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ॥ 15 ॥ (गी. 6 / 6)


जिस जीवात्माद्वारा मन और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है, उस जीवात्माका तो वहआप ही मित्र है और जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रियोंसहित शरीर नहीं जीता गया है, उसके लिये वह आप ही शत्रुके सदृश शत्रुतामें बरतता है ॥15॥


युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा । ॥16॥ (गी. 6 / 17 )


दुःखोंका नाश करनेवाला योग तो यथायोग्य आहार-विहार करनेवालेका, कर्मोमें यथायोग्य चेष्टा करनेवालेका और यथायोग्य सोने तथा जागनेवालेका ही सिद्ध होता है ||16||-


यत्करोषि यदश्रासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥ 17 ॥ (गी. 9 / 27)


हे अर्जुन! तू जो कर्म करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दान देता है और जो तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर ।। 17।


अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च । निर्ममो निरहेकारः समदुःखसुखः क्षमी ॥ (गी. 12 / 13 ) संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः । मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ।। 18 ।। (गी. 12/14)


जो पुरुष सब भूतोंमें द्वेषभावसे रहित, स्वार्थरहित सबका प्रेमी और हेतुरहित दयालु है तथा ममतासे रहित, अहङ्कारसे रहित, सुख-दुःखोंकी प्राप्तिमें सम और क्षमावान् है अर्थात अपराध करनेवाले को भी अभय देनेवाला है; तथा जो योगी निरन्तर संतुष्ट है, मनइन्द्रियोंसहित शरीरको वशमें किये हुए है और मुझमें दृढ़ निश्चयवाला है- वह मुझमें अपर्ण किये हुए मनबुद्धिवाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है ॥ 18॥


यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः ।हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः ॥ 19 ॥ 


जिससे कोई भी जीव उद्वेगको प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीवसे उद्वेगको प्राप्त नहीं होता; तथा जो हर्ष, अमर्ष, भय और उद्वेगादिसे रहित है- वह भक्त मुझको प्रिय है ।। 19॥


त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः । कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥ 


काम, क्रोध तथा लोभ- ये तीन प्रकारके नरकके द्वार आत्माका


नाश करनेवाले अर्थात उसको अधोगतिमें ले जानेवाले हैं। अतएव इन तीनोंको त्याग देना चाहिये ॥20॥


देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् ।ब्रह्मचर्यमहिंसा चे शारीरं तप उच्यते ॥ 21 ॥ 


देवता, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानीजनोंका पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा - यह शरीर सम्बन्धी तपै कहा जाता है ॥ 


अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् ।स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते ।। 22 ।। 


जो उद्वेग न करनेवाला, प्रिय और हितकारक एवं यथार्थ भाषण है तथा जो वेद-शास्त्रोंके पठनका एवं परमेश्वरके नाम-जपका अभ्यास है- वही वाणी-सम्बन्धी तप कहा जाता है ॥ 22 ॥


मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः ।भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥ 23 ॥ 


मनकी प्रसन्नता, शान्तभाव, भगवच्चिन्तन करनेका स्वभाव, मनका निग्रह और अन्त करणके भावोंकी भलीभाँति पवित्रता- इस प्रकार यह मनसम्बन्धी तप कहा जाता है ॥ 23 ॥


यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः । तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥ 24 ॥


हे राजन्! जहाँ योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव धनुषधारी अर्जुन हैं, वहींपर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है - ऐसा मेरा मत है ॥ 24॥ 

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