Bharatiya sanskriti हैं सबसे अलग सोने की चिड़िया है हमारा देश
कोई विदेशी जो भारत से बिल्कुल अपिरिचित हो, एक छोर से दूसरे छोर तक सफर करे तो उसको इस देश में इतनी विभिन्नताएँ देखने में आएँगी कि वह कह उठेगा कि यह एक देश नहीं, बल्कि कई देशों का एक समूह है, जो एक-दूसरे से बहुत बातों में और विशेष करके ऐसी बातों में, जो आसानी से आँखों के सामने आती है बिल्कुल भिन्न है ।
प्राकृतिक विभिन्नताएँ भी इतनी और इतने प्रकारों की और इतनी गहरी नजर आएँगी जो किसी भी एक महाद्वीप के अन्दर ही नजर आ सकती हैं । हिमालय की बर्फ से ढँकी पहाड़ियाँ एक छोर पर मिलेंगी और जैसे-जैसे वह दक्षिण की ओर बढ़ेगा, गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र से प्लावित समतलों को छोड़कर फिर विन्ध्य, अरावली, सतपुड़ा, सह्याद्रि, नीलगिरि की श्रेणियों के बीच समतल रंग-बिरंगे हिस्से देखने में आएँगे ।
पश्चिम से पूरब तक जाने में भी उसे इसी प्रकार की विभिन्नताएँ देखने को मिलेंगी । हिमालय की सर्दी के साथ-साथ जो साल में कभी भी मनुष्य को गर्म कपड़ों से और आग से छुटकारा नहीं देती, समतल प्रान्तों की जलती हुई लू और कन्याकुमारी का वह सुखद मौसम जिसमें न कभी सर्दी होती है और न गर्मी, देखने को मिलेगा ।
अगर असम की पहाड़ियों में वर्ष में तीन सौ इञ्च वर्षा मिलेगी तो जैसलमेर की तप्त भूमि भी मिलेगी जहाँ साल में दो-चार इञ्च भी वर्षा नहीं होती। कोई ऐसा अन्न नहीं जो यहाँ उत्पन्न न किया जाता हो। कोई ऐसा फल नहीं जो यहाँ पैदा न किया जा सके ।
कोई ऐसा खनिज पदार्थ नहीं जो यहाँ के भूगर्भ में न पाया जाता हो और कोई ऐसा वृक्ष अथवा जानवर नहीं जो यहाँ के फैले हुए जंगलों में न मिले। यदि इस सिद्धान्त को देखना हो कि आबहवा का असर इन्सान के रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा और शरीर तथा मस्तिष्क पर कैसा पड़ता है तो उसका जीता-जागता सबूत भारत में बसने वाले भिन्न-भिन्न प्रान्तों के लोग देते हैं। इसी तरह मुख्य-मुख्य भाषाएँ भी कई प्रचलित हैं और बोलियों की तो कोई गिनती ही नहीं
भिन्न-भिन्न धर्मों के मानने वाले भी जो सारी दुनिया के सभी देशों में हुए हैं, यहाँ भी थोड़ी-बहुत संख्या में पाये जाते हैं और जिस तरह बसे यहाँ की बोलियों की गिनती नहीं, उसी तरह यहाँ भिन्न-भिन्न धर्मों के सम्प्रदायों की गिनती आसान नहीं ।
इन विभिन्नताओं को देखकर अगर अपरिचित आदमी घबराकर कह उठे कि यह एक देश नहीं, अनेक देशों का एक समूह है, यह एक जाति नहीं, अनेक जातियों का समूह है; तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं, क्योंकि ऊपर से देखने वाले को, जो गहराई में नहीं जाता, विभिन्नता ही देखने में आयेगी ।
पर विचार करके देखा जाय तो इन विभिन्नताओं की तह में एक ऐसी समता और एकता फैली हुई है जो अन्य विभिन्नताओं को ठीक उसी तरह पिरो लेती है और पिरोकर एक सुन्दर समूह बना देती है, जैसे रेशमी धागा भिन्न-भिन्न प्रकार की और विभिन्न रंगों की सुन्दर मणियों अथवा फूलों को पिरोकर एक सुन्दर हार तैयार कर देता है
जिसकी प्रत्येक मणि या फूल दूसरों से न तो अलग है और न हो सकता है और केवल अपनी सुन्दरता से लोगों को मोहता ही नहीं है, बल्कि दूसरों की सुन्दरता से वह स्वयं सुशोभित होता है और उसी तरह अपनी सुन्दरता से दूसरों को भी सुशोभित करता है ।
यह केवल एक काव्य की भावना नहीं है बल्कि एक ऐतिहासिक सत्य है जो हमारे बरसों से अलग-अलग अस्तित्व रखते हुए अनेकानेक जल-प्रपातों का और प्रवाहों का संगम स्थल बनकर एक प्रकाण्ड और प्रगाढ़ समुद्र के रूप में भारत में व्याप्त है जिसे भारतीय संस्कृति का नाम दे सकते हैं।
इन अलग-अलग नदियों के उदगम भिन्न-भिन्न हो सकते हैं और रहे हैं। इनकी धाराएँ भी अलग-अलग बही हैं और प्रदेश के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार के अन्न और फल-फूल पैदा करती हैं, पर सबमें एक ही शुद्ध, सुन्दर, स्वस्थ और शीतल जल बहता रहता है जो उद्गम और संगम में एक ही हो जाता है
यह एक नैतिक और आध्यात्मिक स्त्रोत है जो अनन्तकाल से प्रत्यक्ष रूप से इस सारे देश में बहता रहा है और कभी-कभी मूर्त रूप होकर हमारे सामने आता रहा है। यह हमारा सौभाग्य रहा है कि हमने ऐसे ही एक मूर्त रूप को अपने बीच चलते-फिरते, हँसते-रोते भी देखा है और
जिसने अमरतत्त्व की याद दिलाकर हमारी सूखी हड्डियों में नई मज्जा डाल हमारे मृतप्राय शरीर में नये प्राण फूँके और मुर्झाये हुए दिलों को फिर खिला दिया । वह अमरतत्त्व सत्य और अहिंसा का है जो केवल इसी देश के लिए नहीं, आज मानव मात्र के जीवन के लिए आवश्यक हो गया है ।
हम इस देश में प्रजातन्त्र की स्थापना कर चुके हैं; जिसका अर्थ है व्यक्ति की पूर्ण स्वतन्त्रता, जिसमें वह अपना पूरा विकास कर सके और साथ ही सामूहिक और सामाजिक एकता भी । व्यक्ति और समाज के बीच में विरोध का आभास होता है।
व्यक्ति अपनी उन्नति और विकास चाहता है और यदि एक की उन्नति और विकास दूसरे की उन्नति और विकास में बाधक हो तो संघर्ष पैदा होता है और यह संघर्ष तभी दूर हो सकता है जब सबके विकास के पथ अहिंसा के हों। हमारी सारी संस्कृति का मूलाधार इसी अहिंसा-तत्त्व पर स्थापित रहा है ।
जहाँ-जहाँ हमारे नैतिक सिद्धान्तों का वर्णन आया है, अहिंसा को ही उनमें मुख्य स्थान दिया गया है। अहिंसा का दूसरा नाम या दूसरा रूप त्याग है और हिंसा का दूसरा रूप या दूसरा नाम स्वार्थ, जो बहुत करके भोग के रूप में हमारे सामने आता है ।
पर हमारी सत्यता ने तो भोग भी त्याग से ही निकाला है और भोग भी त्याग में ही पाया है। श्रुति कहती है—'तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा:'- इसीके द्वारा हम व्यक्ति-व्यक्ति के बीच के विरोध, व्यक्ति और समाज के बीच के विरोध, समाज और समाज के बीच के विरोध, देश और देश
के बीच के विरोध को मिटाना चाहते हैं । हमारी सारी नैतिक चेतना इसी तत्त्व से ओत-प्रोत है । इसलिए हमने भिन्न-भिन्न विचारधाराओं को स्वच्छन्दतापूर्वक अपने-अपने रास्ते बहने दिया । भिन्न-भिन्न धर्मों और सम्प्रदायों को स्वतन्त्रतापूर्वक पनपने और पसरने दिया ।
भिन्न-भिन्न भाषाओं को विकसित और प्रस्फुटित होने दिया । भिन्न-भिन्न देशों के लोगों को अपने अभिन्न भाव से मिल जाने दिया । भिन्न-भिन्न देशों की संस्कृतियों को अपने में मिलाया और अपने को उनमें मिलने दिया और देश और विदेश में एकसूत्रता तलवार के जोर से नहीं,
बल्कि प्रेम और सौहार्द से स्थापित की। दूसरों के हाथों और पैरों पर, घर और सम्पत्ति पर जबर्दस्ती कब्जा नहीं किया; उनके हृदयों को जीता और इसी वजह से प्रभुत्व, जो चरित्र और चेतना का प्रभुत्व है, आज भी बहुत अंशों में कायम है। अब हम स्वयं उस चेतना को बहुत अंशों में भूल गये हैं और भूलते जा रहे हैं ।
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